Saturday, April 13, 2013

तुम्हारे न होने से क्या फर्क पड़ता है अम्बेडकर


सूरज उगने जैसा था तुम्हारा इस दुनिया से जाना

तुम्हारी २२ प्रतिज्ञाएँ हमें याद नहीं लेकिन

हम तुमको दिल में बसाते हैं आलिन्द की तरह

मेरे गाँव से दो कोस दूर नहर किनारे लगी है तुम्हारी मूर्ति

फिर भी लगता है दिन निकलने की तरह तुम्हारे विचारों का प्रकाश

मेरे चारों ओर मौजूद है

तुम्हारे विचार मुझमे मस्ती भरते हैं,

झकझोरते हैं और लड़ने की हिम्मत देते हैं.

यह सच है कि कुछ नेहरू और तमाम गाँधी तुम्हारी जोत के आगे

पहाड़ बनाकर खड़े हो जाते हैं बार-बार

लेकिन क्या फर्क पड़ता है, जब जोत से जोत जलती जा रही है

लगातार, हजारों-हजार

मजदूर तुम्हारा नाम याद करके दुःख भूल जाते हैं

दलित तुमको तब पुकारते हैं जब उनको पट्टा मिलता है

कुछ विस्वा जमीन का

और वह खुद को गर्व से किसान कहते हैं

तुम्हारी किताबें लेकर मेरे घर के सामने से

अब अक्सर निकलता है विद्यार्थियों का रेला

और अंगूठाटेक दादियाँ गाती हैं गीत तुम्हारी महिमा की

रमाबाई को तुम पंढरपुर के कालेराम का दर्शन नहीं करा सके

आज तुम्हारे दर्शन को लाखों लोग जुटते हैं

क्या यह कम है ?

नहीं लगे तुम्हारे नाम के आगे-पीछे राष्ट्रपति-प्रधानमन्त्री जैसे पद

क्या फर्क पड़ता है जब अरबों लोग मानते हैं तुम्हारा संविधान

कभी-कभी लगता है तुम अब इतिहास हो, देवता हो

कभी-कभी लगता है तुम नेता हो, अभिनेता हो, प्रणेता हो मेरे, मेरी पीढ़ी के

फिर लगता है तुम सिर्फ पति हो सविता कबीर के

फिर लगता है तुम बेटे हो महादेव अम्बेडकर के

सबसे ज्यादा लगता है कि तुम मसीहा हो गरीबों के

जिसके पास भी नहीं था स्वाभिमान इस दुनिया में

उसके तुम मुकुट हो सोने के हीरे के

जिन बच्चों का कोई नाम नहीं था,

जाति हो तुम उन करोड़ों नौनिहालों के

तुम्हारे न होने से क्या फर्क पड़ता है

जब गली-गली में खड़े हैं तुम्हारे विचारों के लैम्प-पोस्ट

हे भीमराव,

सच कहने की काबिलियत मुझमे तुमसे है

तुमसे मिला हार का भी जश्न मनाने का हुनर

तुमने मुझे पढ़ने के लिए मजबूर किया

तुमने लड़ने के लिए क़ानून का हथियार दिया

जब लाखों बच्चे भूखे हैं, मजदूर हैं, मजबूर हैं, अनपढ़ हैं

जब करोड़ों लोगों के सपने हैं धूल-धूसरित

रुकना नहीं चाहता मैं सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए

क्योंकि तुमने मुझे झंडा लेकर आगे चलने की जिम्मेदारी भी दिया


-रोशन प्रेमयोगी

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