मेरे सपनों का भारत
मेरी कविताएं और विचार
Sunday, September 25, 2016
वे हिन्दी के लेखक हैं, बहुत नाराज हैं...
हिन्दी के सारे थके लोग
कलम पकड़कर चिल्ला रहे हैं
वे बहुत गुस्से में हैं
वे सचमुच बहुत गुस्से में हैं
उनके हाथ में तलवार दे दी जाए तो मार आएंगे
हिमालय के उस पर जाकर तीतर-बटेर
उन्हें हवाई जहाज दे दिए जाएं तो दाग आएंगे
चांद और सूर्य पर गुमान के गोले
उन्हें सांसद बना दिए जाए तो वे उखाड़ देंगे
सरकार और संविधान के कील-पेंच
पर उन्हें कोई कुछ नहीं दे रहा
उन्हें कोई देख भी नहीं रहा
उनको सुनने के लिए श्रोता भी नहीं हैं
फिर भी वे चिल्ला रहे हैं
माइक पर गूंज रही हैं उनकी आवाजें
वे माइक पर चिल्लाते हुए
कई-कई गिलास पानी पी जा रहे हैं।
वे हिन्दी के लेखक हैं
वे बहुत गुस्से में हैं
हालांकि अभी तक मैं यह नहीं जान सका
कि वे नाराज किससे हैं?
पाठकों से? प्रकाशकों से? सरकार से? समाज से?
या फिर हाशिए पर पहुंच जाने के लिए जिम्मेदार अपने आप से?
-रोशन प्रेमयोगी
Sunday, September 11, 2016
प्रकृति मेरी मुट्ठी में नहीं मैं उसकी मुट्ठी में
जब से इंसानों के बनाये
घर, रेल, हवाई जहाज और जिमखाने के साइज बड़े होने लगे
कुंठा से ग्रस्त होकर
पहाड़, पेड़, ग्लेशियर और झील छोटे होने लगे
इंसान ने जब इनकी कुंठा देखी तो उसने ठहाके लगाये
उसने पहाड़, पेड़, ग्लेशियर और झील सब अपने ड्राइंग रूम-
और लान में बना दिए,
और उसने दिखा दिया,
प्रकृति उसकी मुट्ठी में है
वह हर तरह के सृजन कर सकता है
भगवान को भी बना और बिगाड़ सकता है
मैंने भी इन्नोवेटिव और अहंकारी इनसान बनने की सफल कोशिश की
बना लिया घर अपने गाँव के टीले से ऊँचा
उसमें बरगद, पीपल, नीम्बू... सबको बोनसाई बना दिया
रोज उनको पानी देता था
इसके बाद उनकी औकात को आइना दिखाता था
और ठहाका लगाते हुए उनसे कहता था-
इंसान ही है इस दुनिया का सृजनकर्ता
लेकिन कल रात १५ मार्च तक यानी आधे महीने में
यूपी में ०७ सेमी बारिश हुई
और दनादन किसान आत्महत्या करने लगे
फसलें नष्ट होने से
तो आज सुबह छत पर पहुँचने पर मेरी दम्भी मुस्कान गायब थी
मैंने गमलों में मुस्कुराते पौधों को पहले
इसके बाद उगते सूरज को सिर झुकाकर नमन किया
और आग्रह किया
मेरे देश-दुनिया के किसानों को बचा लो
वे अन्न दाता हैं
और तुम्हारे टुकड़ों पर पलते हैं
और मैं भी.
-रोशन प्रेमयोगी
Tuesday, January 26, 2016
शनिधाम में महिलाओं को प्रवेश दिलाये
कोर्ट, सरकार और यह समाज...
शनिधाम शिगनापुर, अहमदनगर, महाराष्ट्र में हजारों महिलाएं दर्शन के अधिकार के लिए संघर्ष कर रही हैं, और यह पुरुष प्रधान समाज मुंह पर पट्टी बांधकर मौन है. इसी तरह यह समाज तब भी मौन था, जब कालाराम मंदिर, नासिक में रमाबाई अम्बेडकर को दर्शन-पूजन नहीं करने दिया गया था, जिसके बाद बाबा साहेब अम्बेडकर ने 1930 में मंदिर में दलितों-महिलाओं को प्रवेश दिलाने के लिए पहले सत्याग्रह किया, सफलता नहीं मिली तो कानूनी लड़ाई लड़ी. तब भी सफलता नहीं मिली. इस बीच कालाराम मंदिर में दर्शन की हसरत मन में ही लिए रमाबाई अम्बेडकर मर गईं. उसके बाद बाबा साहेब अम्बेडकर ने संकल्प लिया कि मैं पैदा तो हिन्दू के रूप में हुआ, लेकिन मरूंगा किसी और धर्म में. वह बाद में बौद्ध हो गए.
पुजारी इस देश में क्या धर्म के ठेकेदार हैं?--
मेरा सवाल यह है कि हिन्दू धर्म क्या पुजारियों का है?
और इसके धर्माचार्य लाखों-करोड़ों पूजा के नाम पर कमाने वाले पुजारी हैं?
जी नहीं. यह धर्म पुजारियों के कारण सिर्फ संकीर्ण हुआ है. पुजारी धर्म के सौदागर है. इन पुजारियों के तंग करने पर कभी अयोध्या में तुलसीदास को मस्जिद में शरण लेने और मांग कर पेट पालने का फैसला करना पड़ा था, जो लाखों पुजारी अवधी भाषा में रामायण लिख देने से तुलसी से नाराज हो गए थे, उनके वंशज रामचरितमानस का सौदा करने लगे हैं.
आज करोड़ों हिन्दू जब मनुस्मृति की जगह बाबा साहेब अम्बेडकर के नेतृत्व में संविधान सभा के बनाये संविधान से गवर्न होते हैं, और इस पर उन्हें गर्व है तो किसी शनिधाम पर पुजारियों का कानून कैसे चल सकता है.
जिस दौर में शंकराचार्य दलितों को सन्यास की दीक्षा दे रहे हों, दिगंबर अखाडा, अयोध्या के तत्कालीन महंथ रामचन्द्रदास पटना के हनुमान मंदिर में दलित पुजारी बना रहे हों, शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती मंदिर में दलितों को प्रवेश न देने पर विद्रोह करते हुए भगवान के विग्रह को मन्दिरनुमा रथ पर लेकर दर्शन-पूजन करवाने के लिए दलितों की बस्ती में ले जाने जैसा क्रन्तिकारी काम करते हों, उस समय में शनिधाम के पुजारी मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को कैसे रोक सकते हैं?
शंकराचार्य करें हस्तक्षेप--
देश के सभी शंकराचार्य मिलकर इस मामले में हस्तक्षेप करें. वे पुजारियों को बताएं कि आदि शंकराचार्य सन्यासी होने के बाद भी अपनी माँ का शव दाह-प्रवाह के लिए खुद अपने कंधे पर ले गए थे. और भगवान शंकर तो सती का शव लेकर पूरे ब्रह्माण्ड में घूमे थे. जब वे स्त्री को अछूत नहीं मानते थे तो उनके ही स्वरूप शनि देवता की पूजा का अधिकार कैसे कुछ पुजारी मिलकर छीन सकते हैं?
पुजारी- पंडित न भूलें, स्त्री के बलपर दुनिया में धर्म जिन्दा है इन समाजों में. स्त्रियां पूजा करती हैं, इसलिए दुनिया के लाखों-करोड़ों धर्मस्थल अरबों-खरबों की कमाई करते हैं. जिस दिन महिलाएं पूजा बंद कर देंगी, धर्म के लाखों ठेकेदार दक्षिणा न मिलने से भूखों मरने लगेंगे.
सर्वोच्च कोर्ट और सरकारों से अपील--
मेरा अनुरोध है,
देश के प्रधानमंत्री और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अहमदनगर के शनिधाम मंदिर का अधिग्रहण करने का आदेश दें. ताकि वहां सबको पूजा का अधिकार मिले,
वे यह काम करने में अक्षम हों तो प्लीज, देश की सर्वोच्च कोर्ट यह काम खुद संज्ञान लेकर करे.
मेरे आँखों में आंसू हैं और आक्रोश भी--
पुजारिओं के आतंक और मनमानी से मैं बहुत आहत हूँ. दुखी हूँ और मेरे आँखों में आंसू हैं और आक्रोश भी. स्त्री वर्ग और जाति के नाम पर समाज के कई वर्गों को मंदिर में जाने से रोकने वालों का सर्वनाश हो. यही ईश्वर से कामना है.
-रोशन प्रेमयोगी
Sunday, September 8, 2013
हे दंगा कराने वाले धर्म, तुम्हारा सर्वनाश हो
चुरकी-दाढ़ी-खतना-कड़ा का अर्थ न जानने वाले बच्चों को भी तुम मरवा देते हो.
अपने रूई-सूत से मतलब रखने वाले गरीबों पर तुम कहर ढाते हो.
तुमने ८४ में हजारों सिखों को मरवाया
तुमने ईराक-इरान को लड़वाया
तुम गोधरा काण्ड कराते हो
तुम मुंबई के अमन में आग लगाते हो
तुमने अयोध्या से तुलसीदास को भगाया
तुमने वाराणसी में कबीर और नजीर बनारसी को नहीं रहने दिया
तुम हर साल लाखों बच्चों से दुनिया में पिता छीन लेते हो
तुम तिब्बतियों को आत्महत्या के लिए प्रेरित करते हो
तुमने कश्मीर से पंडितों के परिवारों को खदेड़ा
तुमने शिव के काशी में किया बखेड़ा
तुमने बोधगया में बम दगावाया
तुमने गणेश शंकर विद्यार्थी को मरवाया
तुमने भारत का विभाजन कराया
तुमने एंग्लो इंडियन का सर्वनाश कराया
तुम हत्यारे हो
तुम अपराधी हो
तुम पापी हो
दुनिया में अमन के लिए तुम्हारा सर्वनाश हो.
-रोशन प्रेमयोगी
Monday, June 10, 2013
सब करना लेकिन आत्महत्या न करना
आज एक लड़की ने मुझे फोन किया. मेरे लेखन की तारीफ की. कुछ देर बाद फिर फोन आया. उसने बताया कि वह एक लडके से बहुत प्यार करती है. एक साल से लडके ने दूरी बनानी शुरू कर दी. उसने जोर दिया तो लडके के माता-पिता उसे देखने आये और नापसंद कर दिया. अब जिंदगी बेकाम लगाती है. आत्महत्या करना चाहती हूँ. मैंने लडके को फोन करके पूछा, कि जिसे तुम इतना प्यार करते थे. वह खराब कैसे हो गई, लडके ने कोई साफ़ जवाब नहीं दिया. लड़की ने बताया न वह लडके को भूल पा रही, और न जीने की नयी राह दिख रही. मैंने उसकी हावीज पूछी, पढाई में उसने बीए और एक प्रोफेशनल कोर्स किया है. मैंने उससे पूछा, इश्वर को मानती हो? उसने हाँ कहा. मैंने कहा, हो सकता है इश्वर ने तुम्हारी जोड़ी किसी और के साथ बनाई हो, तो उसका इंतजार करो, जिसने तुमको ठुकरा दिया, उसकी यादों के पीछे भागन मूर्खता है. अपने करियर पर ध्यान दो, और हाँ, आत्महत्या सपने में भी न करना. वह मान गई. मुझे फिर फोन करने के वादे के साथ.
-रोशन प्रेमयोगी
Tuesday, May 7, 2013
उत्पीडन की कविता होती हैं बेटियाँ
बेटियां दिल होती हैं समाज की
ख़ुशी होती हैं पिता की
दोस्त होती हैं माँ की
आधार होती हैं परिवार की
बेटियां सुबह होती हैं
सृजन की पहली किरण होती हैं
नदी का किनारा होती हैं
भाई का सहारा होती हैं
बेटियां जंगल की लता होती हैं
रिश्तों का पता होती हैं बेटियां
बेटियां घर की रौनक होती हैं
फूलों की महक होती हैं बेटियां
बेटियां धरम होती हैं
मंदिर की घंटियाँ होती हैं बेटियां
बेटियां रास्ता होती हैं करियर की
पतझड़ की कलियाँ होती हैं बेटियाँ
बेटियां बारूद होती हैं प्रेम की
गाँव की नाक होती हैं बेटियां
बेटियां अन्याय की सविता होती हैं
उत्पीडन की कविता होती हैं बेटियाँ
हिरन की तरह जंगल में जीती-मारती हैं बेटियां
सूरज की पहली किरण की तरह पहाड़ों से डरती हैं बेटियाँ
बेटियाँ अनकहा राज होती हैं
अनसुना इतिहास होती हैं बेटियाँ
-रोशन प्रेमयोगी
Saturday, April 13, 2013
तुम्हारे न होने से क्या फर्क पड़ता है अम्बेडकर
सूरज उगने जैसा था तुम्हारा इस दुनिया से जाना
तुम्हारी २२ प्रतिज्ञाएँ हमें याद नहीं लेकिन
हम तुमको दिल में बसाते हैं आलिन्द की तरह
मेरे गाँव से दो कोस दूर नहर किनारे लगी है तुम्हारी मूर्ति
फिर भी लगता है दिन निकलने की तरह तुम्हारे विचारों का प्रकाश
मेरे चारों ओर मौजूद है
तुम्हारे विचार मुझमे मस्ती भरते हैं,
झकझोरते हैं और लड़ने की हिम्मत देते हैं.
यह सच है कि कुछ नेहरू और तमाम गाँधी तुम्हारी जोत के आगे
पहाड़ बनाकर खड़े हो जाते हैं बार-बार
लेकिन क्या फर्क पड़ता है, जब जोत से जोत जलती जा रही है
लगातार, हजारों-हजार
मजदूर तुम्हारा नाम याद करके दुःख भूल जाते हैं
दलित तुमको तब पुकारते हैं जब उनको पट्टा मिलता है
कुछ विस्वा जमीन का
और वह खुद को गर्व से किसान कहते हैं
तुम्हारी किताबें लेकर मेरे घर के सामने से
अब अक्सर निकलता है विद्यार्थियों का रेला
और अंगूठाटेक दादियाँ गाती हैं गीत तुम्हारी महिमा की
रमाबाई को तुम पंढरपुर के कालेराम का दर्शन नहीं करा सके
आज तुम्हारे दर्शन को लाखों लोग जुटते हैं
क्या यह कम है ?
नहीं लगे तुम्हारे नाम के आगे-पीछे राष्ट्रपति-प्रधानमन्त्री जैसे पद
क्या फर्क पड़ता है जब अरबों लोग मानते हैं तुम्हारा संविधान
कभी-कभी लगता है तुम अब इतिहास हो, देवता हो
कभी-कभी लगता है तुम नेता हो, अभिनेता हो, प्रणेता हो मेरे, मेरी पीढ़ी के
फिर लगता है तुम सिर्फ पति हो सविता कबीर के
फिर लगता है तुम बेटे हो महादेव अम्बेडकर के
सबसे ज्यादा लगता है कि तुम मसीहा हो गरीबों के
जिसके पास भी नहीं था स्वाभिमान इस दुनिया में
उसके तुम मुकुट हो सोने के हीरे के
जिन बच्चों का कोई नाम नहीं था,
जाति हो तुम उन करोड़ों नौनिहालों के
तुम्हारे न होने से क्या फर्क पड़ता है
जब गली-गली में खड़े हैं तुम्हारे विचारों के लैम्प-पोस्ट
हे भीमराव,
सच कहने की काबिलियत मुझमे तुमसे है
तुमसे मिला हार का भी जश्न मनाने का हुनर
तुमने मुझे पढ़ने के लिए मजबूर किया
तुमने लड़ने के लिए क़ानून का हथियार दिया
जब लाखों बच्चे भूखे हैं, मजदूर हैं, मजबूर हैं, अनपढ़ हैं
जब करोड़ों लोगों के सपने हैं धूल-धूसरित
रुकना नहीं चाहता मैं सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए
क्योंकि तुमने मुझे झंडा लेकर आगे चलने की जिम्मेदारी भी दिया
-रोशन प्रेमयोगी
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